
2020 का शुरुआती समय याद कर लीजिए.. कोरोनावायरस तब नया डर बनकर आया था.. थोड़े दिन गुज़रे तो डर पुराना हो गया.. आदत बन गया.. फिर बेफ़िक्री आई और अब डर का सालाना Subscription Renew हो गया है। आशंकित लोगों के सामने कोरोनावायरस, एक नया डर बनकर हाज़िर है… ऐसे में वायरस वार्षिकी आपसे शेयर कर रहा हूँ।
दरअसल जब दुनिया के तमाम हिस्सों में एक वायरस ताला लगा रहा हो, इंसान को मजबूर कर रहा हो कि वो अपनी ही बनाई अट्टालिकाओं और अपने ही कीर्तिमानों में क़ैद रहे.. तो इंसान के मन में अपने अस्तित्व, अपनी संवेदनशीलता और अपने संबंधों को लेकर सवाल उठते हैं। संक्रमण के बीच ये आत्मावलोकन और रचना-धर्म का समय था.. इसलिए ये प्रोजेक्ट 2020 में मार्च में शुरू किया था… समय समय पर इसमें कुछ न कुछ जोड़ता रहा। शरीर लॉकडाउन में था तो भी हम सबका मन आज़ाद घूम रहा था.. और आसपास रिपोर्टिंग कर रहा था। उसी को संजोया है… इसे Poetic Documentary कह लीजिए, Observatory से दिखने वाला खगोलीय दृश्य कह लीजिए, साल भर की धुंधली सी टाइमलाइन मान लीजिए.. या सीधा सादा सत्य कह लीजिए.. जो सबके मन में आता है.. ये मानक, भाषा और फॉर्मैट को तोड़ती हुई Drone View वाली बातचीत है।

Infection 🦠: संक्रमण
हर मुलाक़ात संक्रमित है
माथे को सहलाने वाला हाथ संक्रमित है
प्रेम के रखवाले अब दल बदल चुके
स्नेह लेप लगाने वाला साथ संक्रमित है
एक विषाणु किसी का क्या बिगाड़ेगा ?
जहाँपनाह पूरे के पूरे आप संक्रमित हैं

Masks 🦠 : मुखौटे
अंदर तो हमेशा ही पहनकर रखते थे
ये मुखौटे अब बाहर आ गये हैं
अपनी पहचान ढूँढते घूम रहे लोगों में
आजकल मुँह ढकने की होड़ है
अब सब एक जैसे लगते हैं

Cage 🦠 : पिंजरा
जैसे किसी बच्चे ने शरारत में
एक लकीर खींच दी
और अगले ही पल
सबके आलीशान घर
पिंजरे बन गए
अब घरों में चिंताओं का,
टकराती हुई आदतों का,
बोरियत का ट्रैफ़िक जाम है..
और सड़कों पर बेफ़िक्री ऊँघ रही है
पशु-पक्षी बिना टिकट देख रहे हैं मनुष्य को
दुनिया के सन्नाटे में ये गज़ब गोष्ठी हो रही है


Ants 🦠 : चींटियाँ
कोई सड़क पर जानवरों को देखकर चकित था… कोई सड़कों के ख़ालीपन को देखकर ये सोच रहा था कि ऐसी सुनसान, सुन्न सड़कें तो उसके मन में रहती थीं.. बाहर कैसे आ गईं ? बहुत से लोग उस भीड़ को देखकर भी चकित थे जो सड़क पर चींटिंयों की तरह चली जा रही थी.. वायरस से डरे बग़ैर…
उस चलते फिरते आदमी के अंदर
भूख की अंगीठी है
सबने अपनी अपनी रोटी सेंकी उस पर
सब खा-पीकर घर चले गये
अब वो अकेला है
सड़क पर किसी लाल बत्ती की तरह
सबको रोक रोक कर कह रहा है
“वायरस उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता”

Jewel 🦠 : ज़ेवर
वायरस की तस्वीर को देखिए ज़ूम करके
किसी माइक्रोस्कोप में
बिलकुल ज़ेवर की तरह लगता है
ग़रीबी-भुखमरी को ज़ूम करके देखिए
उसमें स्पष्ट दिखते हैं बड़े-बड़े लोग
ज़ेवर सोने के… चाँदी के.. प्रतिष्ठा के
लगते हैं वायरस की तरह..
Womb 🦠 : वापस जा रहा हूँ माँ की कोख में
जननी ने बच्चे को दुनिया में छोड़ा था.. ममता के कवच के साथ.. पूरी रफ़्तार से.. अब दुनिया में ताला लग गया है.. तो बच्चा कह रहा है.. मैं वापस चला माँ की कोख में। सुकून.. सुरक्षा और विश्वास.. एक साथ एक ही शब्द में सध गये हैं.. भयग्रस्त दुनिया को माँ की सृजनशक्ति और सहनशक्ति की ज़रूरत है

घर में रहने को कहते हैं सब
दुनिया अब सुरक्षित नहीं रही
मैं वापस कोख में आना चाहता हूँ माँ
मुझे पता है
तुम्हारे अंदर मेरा रजवाड़ा है
मेरा सिंहासन
मेरी दुनिया
मुझे पता है
वहाँ जीवाणुओं की सल्तनत नहीं चलती
Test Positive 🦠 : टेस्ट पॉज़िटिव आया है
वायरस सबका टेस्ट ले रहा है… सिर्फ इंसानी शरीर ही नहीं.. हर भावना परीक्षा से गुज़र रही है.. सब एक दूसरे का टेस्ट ले रहे हैं.. इस समय अगर संवेदनाओँ के सैंपल इकट्ठा किए जाएं.. तो लोगों के दिलों की किताबों से कई सूखे फूल निकलेंगे.. छूते ही टूट सकने वाले… अगर किसी को ये एहसास हो जाए कि वो जहाँपनाह नहीं है.. उसकी मर्ज़ी से एक पत्ता भी नहीं हिल सकता.. तो वो एक बार ज़रूर अपना फ़ोन उठाकर किसी अपने का नंबर डायल करेगा..और जब दूसरी तरफ़ से आवाज़ आएगी.. तो देर तक ज़ुबान से कुछ नहीं निकलेगा.. शायद आँखों से निकल आए… कुछ टेस्ट ऐसे होते हैं.. जिनके सैंपल आँखों से लिए जाते हैं। लॉक़डाउन में देर तक आँच पर उबलता हुआ साथ अगर सचमुच होता है.. तो गाढ़ा होता जाता है क्रमश:
पूरे दिन दूर बैठकर, कहीं अकेले करता हूँ बातें तुमसे
मेरे जैसे असंख्य लोग भी
क्या ऐसा करते होंगे किसी अपने के साथ ?
महामारी में हर आवश्यकता परीक्षा से गुजरती है
तुम्हारा गुज़रना यूँ आँखों के आगे से बार बार
ये बताता है कि मैं पास हो गया हूँ
हमारे प्रेम का टेस्ट पॉज़िटिव आया है
Wireless एकांत : वो दौर जब सब लॉकडाउन से थकने लगे
आपदा, महामारी, संक्रमण के असर.. अजीब होते हैं.. जैसे कोई व्यंजन बन रहा हो.. और उसे बनाने की रेसिपी में लिखा हो… “समाज के छिलके-कूड़ा-करकट माने जाने वाले गरीब-भूखे-मजबूर-बेरोज़गार पहले अलग निकाल लीजिए.. ना निकले तो पानी में भिगोकर छोड़ दीजिए.. थोड़ा समय बीतने पर छिलका अलग हो जाएगा.. और समाज का संपन्न हिस्सा तैयार हो जाएगा.. थोड़ी गर्मी, आग झेलने के बाद लज़ीज़ बनने के लिए…
हम हों.. या तुम.. सब वायरलेस हैं आजकल.. अदृश्य बंधनों में बंधे हुए.. अपने अपने लॉग-इन और पासवर्ड के साथ सुरक्षित अपने कोटरों में.. महामारी से उपजे अकेलेपन का सारा दोष वायरस पर थोपकर.. ये सोच रहे हैं कि ये मजबूरी खत्म कब होगी ? ये मजबूरी सच्ची है.. लेकिन सच तो ये भी है कि आज जो हालात हैं.. वही पहले भी थे… बस चहल पहल खत्म हो गई है.. अपने में गुम.. प्रजाति तो वही है… इस WiFi प्रजाति को एक वायरस ने झकझोरा है… नया उद्देश्य दिया है.. और अब तक के कर्मों के फलस्वरूप शाप दिया है… शाप कोई दैवीय आदेश नहीं होता.. शाप, कर्मों की श्रृंखला से उपजा काँटा है.. जो क्रूरता के पथ पर देर तक चलने के बाद चुभता है। शायद मनुष्यता को भी ये वायरस काँटे की तरह चुभ गया है।
वायरस ने लकीर खींच कर समय को बाँट दिया है.. BC यानी Before Corona और AC यानी After Corona में। दो कविताएँ हैं.. और एक भाव-चित्र बनाए जाने का वीडियो है मौलिक आवाज़ और संगीत के साथ.. Play Button पर Tap करें
सृष्टि ने हर जीव को संगरोध (क्वारंटीन) में रखा….. हम सब अकेले थे…. हम सब अनोखे थे…. फिर हम जीवन के रस में… असंख्य वायरस, बैक्टीरिया, पेड़-पौधे, पशु पक्षियों और कुछ चुने हुए इंसानों के साथ गूँथे गये….. घर के साझे चूल्हे में पके… झूमती हुई गली से… बतियाता हुआ मोहल्ला बने… हैसियत बढ़ी तो बेफ़िक्र समाज बने.. और लटक गये वाई-फ़ाई से.. एकदम सुन्न होकर… अब एक ज़िंदा वायरस ने.. वाई-फ़ाई प्रजाति को झकझोरा है.. नया उद्देश्य दिया है।
Thorn of Curse 🦠 : शाप का कांटा
भीड़ की ताकत दिखाई है युद्धों ने
भीड़ का अकेलापन विषाणु ने दिखाया है
शहरों ने चुपचाप मृत्यु का गीत गाया है
आँकड़ों के कोलाहल में…गहरा सन्नाटा..
दरवाज़ा तोड़कर.. घर में घुस आया है
सभ्यता ने चुपचाप अपना सिर झुकाया है
तरकीबों के तरकश में.. रखे रह गये सैकड़ों बाण
सत्ताएँ बस बग़लें झांकती.. निकलते जा रहे हैं प्राण
चीख़ों के महासमुद्र से.. एक हाथ उठकर आया है
शाप में समाज ने अकेलापन पाया है
Experience of a Sample Human 🦠 : सैंपल मनुष्य का अनुभव

कई बार लगता है कि अनुभव एक व्यक्ति से दूसरे में किसी जीवाणु की तरह यात्रा करता है.. और इस क्रम में कुछ इंसान.. दूसरे इंसानों के लिए एक सैंपल का काम करते हैं.. सैंपल मनुष्य वो है.. जिस पर सारे प्रयोग होते हैं… और जिसका जीवन और मृत्यु दूसरे को बचाने के काम आते हैं.. एक अनुभव बनकर। सैंपल मनुष्य के जोखिम भरे जीवन से जो सूत्र निकलते हैं उन्हें शासक और राजकाज में जुटे शक्तिशाली मनुष्य अपनी अलमारी में रख लेते हैं। अक्सर सिंहासन पर बैठने वालों को अपनी तरफ़ आती हुई किसी भी चुनौती को सीधे आँख मिलाकर देख पाना नसीब नहीं होता। ये संसार सैंपल मनुष्यों से भरा पड़ा है.. हो सकता है आप भी एक सैंपल मनुष्य हों… इससे दुखी या विचलित होने की ज़रूरत नहीं है.. संसार के लिए एकदम नये अनुभवों के बीज बोना.. आविष्कारों की फसल तैयार करना.. छोटा काम नहीं है।
सैनिक सबसे आगे खड़ा होता है
पहली ललकार सामने से आती है
सबसे पहले उसे छूती है
तीर उसे भेदता है पहले
भाले उसके सीने में सुराख़ करते हैं सर्वप्रथम
बंदूक से निकली गोली भी प्रवेश करती है
पहले उसी सैनिक के जिस्म में
और वहीं अपना घर ढूँढती है
रक्त को धक्के मारकर बाहर निकालते हुए
वायरस भी पहले किसी निर्धन को ही
ज़िंदा लाश बनाकर दफ़्न करता है
इसके बाद बन जाते हैं टीके…
माताएँ डिस्पेंसरी में बच्चे को पुचकारते हुए सुई लगवा आती हैं
बड़े बड़े लोगों तक
नहीं पहुँच पाता अनुभव उस प्रथम सेनानी का
सिंहासन पर बैठे आदमी की ग़रीबी ऐसी होती है
हर महासमर में
अनुभव बहता है नीचे से ऊपर की ओर