कभी सोचा है ?
फ़ोन का कैमरा ही इस दौर का आईना है
कैमरे की प्रिव्यू स्क्रीन में अकारण देर तक ढूँढते हैं
अपना वो कोना जो थोड़ा नया दिखे
तमाम मुद्राएँ बनाते हुए
बीच बीच में बात करते हैं
उस स्क्रीन से
जिसका कंटेंट रिकॉर्ड नहीं हो रहा
इस बिंदु तक स्क्रीन एकदम आईने जैसी होती है
फिर तस्वीर लेने से ठीक पहले ये सहजता सावधानी में बदल जाती है
और हम जम जाते हैं अपने सच के साथ…
बाद में अफ़सोस करते हैं कि तस्वीर अच्छी नहीं आई
और अपनी सहजता को ही कोसते हैं
जबकि अच्छी तस्वीर उसी लम्हे की होती है, जब हम सहज होते हैं
कितनी अनिश्चित है आईने और कैमरे के बीच की ये स्पेस
जहां सहज होने या ना होने पर हमारा कोई वश नहीं
सहजता की स्पेस को समझ लेना, उस पर नियंत्रण पा लेना, कितना क़ीमती है…

‘सिद्धार्थ की दूरबीन’ 🔭