गाँधी जी की मुस्कान से सुसज्जित नोट तो खूब चलते हैं
लेकिन बापू के वो उसूल, वो आदर्श, इस दौर में कम चलते हैं

इस पोस्ट में परिकल्पना ये है कि करेंसी नोट पर छपे हुए गांधी जी ख़ुद से जुड़े विरोधाभासों पर हँस रहे हैं.. क्योंकि..
- हम इंसान स्वदेशी हैं.. पर हमारी ज़िंदगी चलाने वाले ब्रांड विदेशी हैं, फ़ोन, लैपटॉप, कार, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स, सब में विदेशी ताक़तों का हाथ है।
- नेताओं को दांडी यात्रा का नाम सुनकर थकान होने लगती है.. आज की राजनीतिक पदयात्रा पर कैमरे की नज़र न पड़े तो सब मिथ्या है… अपने 78 वर्ष के जीवनकाल में 35 वर्षों के दौरान महात्मा गांधी ने देशभर में क़रीब 79 हज़ार किलोमीटर की पैदल यात्राएँ की थीं। ये दूरी पृथ्वी के दो चक्कर लगाने के बराबर है। इतना जनसंपर्क करना आज के किसी नेता के बस की बात नहीं है।
- विरोधाभास ये है कि सारे संसार को अहिंसा का सूत्र देने वाले महात्मा के देश में सबसे ज़्यादा पैसा डिफेंस/हथियारों पर खर्च करना पड़ता है।
- सामान्य भाषणों में गांधी जी की अहिंसा ट्रेंड करती है जबकि हुक्मरानों की नीतियां किसी न किसी हिंसा को जन्म देती हैं। चुनावी भाषणों में शाब्दिक हिंसा होती है.. तब महात्मा को साइड में बैठा दिया जाता है, बिलकुल उस मूर्ति की तरह जो चौराहे पर धीरे धीरे गंदी होती रहती है और राष्ट्रपिता के अपमान का कारण बनती है
- अपना घर साफ रखने वाले.. सारा कूड़ा सड़क पर फेंक देते हैं, मन पर भी यही फॉर्मूला लागू होता है.. मन मैला न रहे इसके लिए क्रोध और सारा कूड़ा किसी दूसरे पर (कमज़ोर पर) फेंक दिया जाता है
- अभिमान को नायकों का गुण मान लिया गया है, जितना ज़्यादा घमंड.. उतना ही बड़ा आदमी माना जाएगा
- सादगी को मूर्खता माना जाता है.. सार्वजनिक जीवन में कोई संपन्न हो और सादगी से रहे.. तो उसे नाटक घोषित कर देते हैं हम लोग
- कोई सहनशील होगा तो ये मान लिया जाएगा कि उसके पास कोई विकल्प नहीं है.. वर्ना वो भी दुनिया की छाती पर मूंग दलता..
- सत्य के साथ सबसे बड़ा प्रयोग ये है कि अगर झूठ को आत्मविश्वास के साथ बार बार बोला जाए.. तो वो 50 फीसदी सच लगने लगता है.. बाकी जो कमी रह जाती है वो प्रचार और बाहुबल से पूरी की जाती है।
- भ्रष्टाचार को शक्ति और मौक़े का साइड इफ़ेक्ट मान लिया गया है, ये अधिकतर लोगों को बुरा नहीं लगता। भ्रष्टाचारियों के बारे में सुनकर लोग कहते हैं – देखो इसकी क़िस्मत है, हमारी ऐसी क़िस्मत कहाँ !
- और जो भजन गांधी जी को पसंद था.. आज की पीढ़ी उसका रीमिक्स भी नहीं सुनना चाहती.. बच्चे कहते हैं ये बड़ा धीमा है.. हालांकि कोई भी गांधी जैसी तेज़ गति से दस मिनट चलने में हांफ जाएगा