अस्पताल
जैसे कोई सागर विशाल
इंसान
नाज़ुक सी नाव, डूबती जान.. पहचान..
ज़ख्म
वो खिड़की जिससे रोशनी पाते हैं हम !
पैसा
आया, थोड़ी देर रुका, गया… छद्म ऐसा, तो अफ़सोस कैसा ?
व्यापार
बंद हैं लिहाज़ के द्वार, ढूँढो शिकार, करो वार

मेरे इंटरनेट स्तंभ ‘सिद्धार्थ की दूरबीन’ 🔭 से