एक दिन अचानक कोई चला जाता है
लेकिन उसके अस्तित्व का गणित बना रहता है
उसके हिस्से का सामान आता रहता है
क्योंकि समझ में नहीं आता कि उसका हिस्सा लगाया जाए या नहीं ?
उसे गिना जाए या नहीं ?
क्या 4 रोटी कम बनाई जाएँ ?
क्या दूधवाले को कह दिया जाए..
भइया दूध कम कर देना कल से ?
फोनबुक में नंबर रखा जाए या मिटा दिया जाए ?
इंसान सदा के लिए नहीं है,
प्रेम, चोट और दर्द सदा के लिए नहीं है,
कुछ भी सदा के लिए नहीं है
पर मैसेज हिस्ट्री और नंबर ‘forever’ है
गणित के ये सवाल हल नहीं होते
कम नंबर आते हैं
हमें शून्य में ले जाते हैं
वो शून्य जहां बीच बीच में स्मरण के झोंके आते हैं
सुनो… हम सब तुम्हें अब भी गिनते हैं

“हर रोज़ सादे पन्ने की तरह उससे मिलना
और भर जाना
देखते ही देखते
एक दूसरे को”
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ये आखिरी पंक्तियाँ थीं, जो साक्षात रोहित को भेंट की थीं
आज मन में आया —
“दिल के सादे पन्नों पर
वो अब भी कुछ कुछ लिखता है
जब चाहो तब दिखता”
मेरे इंटरनेट स्तंभ ‘सिद्धार्थ की दूरबीन’ 🔭 से