लकीर का अमीर

मेरे पिता बहत्तर वर्ष के पार हैं.. लेकिन उनका कंठ आधी उम्र का है.. सबूत माँगना फ़ैशन में है.. तो इस बात का सबूत वीडियो के रूप में सबसे पहले दे रहा हूँ। इसे सुनेंगे तो मेरे साथ साथ आपको भी अच्छा लगेगा

इसमें वो अपना एक मशहूर गीत गा रहे हैं.. दरवाज़े अपने हैं.. ताले ग़ैरों के.. आँगन में हिस्से हैं, नत्थूखैरों के..

ये गीत उनकी किताब – गाती आग के साथ.. में शामिल है… पुस्तक का अंश भी लगा रहा हूँ…

जिस जगह पर बैठकर वो ये गीत गा रहे हैं.. वो उनकी अपनी ही विरासत से बनी है.. जीवन भर मेरे पिता ने ज्ञान और पुस्तकें अर्जित की हैं.. और इस दौरान समय निकालकर अपनी ये आदत उन्होंने मुझमें प्रत्यारोपित कर दी। उनकी ही बदौलत आज मैं एक पुस्तकालय जैसी जगह में रहता हूँ.. वहीं चाय पीता-लिखता-पढ़ता-पेंट करता हूँ.. सिनेमा और संगीत में डुबकी लगाता हूँ.. और पिता कौतुक से देखते रहते हैं.. खुश होते हैं मुझमें अपनी अभिव्यक्ति देखकर…

जीवन में तमाम सम्मान और साधन आते जाते रहेंगे.. लेकिन उनकी ये नज़र मेरे लिए सबसे बड़ा सम्मान है।

दो किताबें छपने के काफी अरसे बाद सितंबर 2005 में उनका एक ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हुआ। उसकी प्रति जब मेरे हाथ में आई तो शुरुआत में ही पन्ने पलटते हुए दो लाइनें पढ़कर मेरी आँखों में चमक आ गई.. और वो चमक आज भी है।

वहां समर्पण के पन्ने पर लिखा था

सिद्धार्थ को
उम्मीद की रोशनी की एक चमकीली शहतीर जो मुझ तक आकर एक पुल बनाती है

इन पंक्तियों की चमक मेरी आँखों में आज भी है.. हमेशा रहेगी.. पुरस्कार, पैसे, कामयाबी, नाकामी.. किराये के मकान.. अपना घर.. आते जाते रहेंगे.. हम यूँ ही पिता से नज़र बचाकर खेलते रहेंगे.. और वो.. छज्जे से खड़े हमें देखते रहेंगे.. मुस्कुराते रहेंगे।

कुछ तस्वीरों की मदद से भी अपने जिये हुए को जोड़ा है.. ये कोलाज भावनाओं को एक चेहरा देता है... इसमें ये बात भी स्पष्ट होती है कि बालों को अगर उनकी मौलिक अभिव्यक्ति के साथ छोड़ दिया जाए.. तो वो वैसे ही हो जाते हैं जैसे थे.. बीच में बच्चों के सिर पर तेल और अनुशासन चुपड़ा जाता है.. जो अंततः व्यर्थ जाता है 😂

पिता और संतान के बीच हमेशा एक पुल होता है.. जिस पर बड़ी सावधानी के साथ आशीर्वादों से भरे ट्रक चलते हैं.. उन ट्रकों में गीत बजते हैं.. इस विचार पर कुछ लाइनें लिखी थी..

एक पुल है
जो धीरे धीरे बना है.. कई वर्षों में
कई हज़ार फ़ीट की ऊँचाई पर


अनुभव और वात्सल्य के कई ट्रक
गुजर कर उस पर से आते हैं मुझ तक


महानगर के किसी भी युद्ध में
मेरी पोस्ट पर रसद की कमी नहीं होती

छोटे छोटे आशीष पिता के
पहुँचते रहते हैं उम्र भर

माता पिता से जुड़े निजी अनुभवों में एक सार्वभौमिक बात मुझे दिखती है..
वो ये कि हर बच्चा लकीर का अमीर है…

पिता उम्मीद की चमकीली लकीरें खींच खींचकर पहुँचाते हैं बच्चे तक…
और बच्चा…उन लकीरों को डोर बनाकर पतंग उड़ाता है

मैं लकीर का अमीर हूँ
स्वप्न मेरे… वात्सल्य की लकीरों से बंधकर भी… उड़ान में रहते हैं

#SidTree Ka #Kavivaar on #FathersDay