क़रीब एक दशक पहले 2011 के आसपास ये कविता लिखी थी.. इतने समय में हर चीज़ पुरानी हो जाती है.. अपडेट माँगने लगती है.. लेकिन विचार अगर मौलिक और सार्वभौमिक हों तो समय की ओस उसे नया करती है और फ़्लेवर में बदलाव आता है..
असल में हम कुछ यूँ नुकीले.. और सबमें चुभे चुभे से रहते हैं.. कि अपने चारों तरफ़ उत्साह और ख़ुशी के बुलबुले फोड़ते चलते हैं। ऐसे माहौल में चोट खाकर भी चलता हुआ, मुस्कुराता हुआ.. कुछ खूबसूरत रचता हुआ.. व्यक्ति.. किसी आर्टिस्ट से कम नहीं है… आपके आसपास ऐसे कई आर्टिस्ट मिल जाएंगे.. जिनसे ज़िंदगी का शुक्रिया अदा करना सीखा जा सकता है।
पहले वीडियो है.. फिर कविता नीचे लिखी है.. इन शब्दों को वीडियो में संजोते हुए.. फिर नये सिरे से इसे रचने का भाव आया.. आप देखिए.. आप तक ये भाव पहुँचता है या नहीं। ये 90 सेकेंड आपके हैं.. हेडफ़ोन लगाइए और देखिए.. अगर हेडफ़ोन आसपास न हो तो आवाज़ थोड़ी बढ़ा लीजिएगा।
कोई पेंटिंग देखते-देखते… रंगों में सनी हुई कहानियां दिखने लगती है हर रंग एक चोट है… हवा चलती है… ब्रश रोता है… दर्द होता है दुनिया भर की बदसूरती.. हृदय में घुसी कटार.. बन जाती है सितार जब दम घुटता है.. आवाज़ भीग जाती है…और जन्म लेता है संगीत गुस्से में जल रहा मन.. कई बार शब्दों को पिघला देता है और पिघले हुए शब्द करुणा के सांचे में जमकर बन जाते हैं कविता आपके आसपास कोई गरीबी, तंगहाली का जश्न मना रहा है कोई खुद पर फेंके गए पत्थरों से.. छोटा सा घर बना रहा है जगह जगह से सड़ती-गलती दुनिया को रहने लायक बना देते हैं ये सब आर्टिस्ट हैं.. सृष्टि के रचयिता…
