बहुत जल्दी में हैं तो कोई बात नहीं.. फ़ुरसत में पढ़ लीजिएगा.. ये कोई टू-डू लिस्ट नहीं है..
जैसे आपके माता पिता ने की होगी.. ठीक वैसे ही.. मेरी माँ और पापा ने अपने अर्थ को सिद्ध करने वाले बच्चे की कामना की थी… अपने आसमान में रोशनी की लकीर खींचते हुए बड़े चाव से लिखा था सिद्धार्थ..
हर माता पिता ऐसे ही नामकरण करते हैं.. और फिर उस नाम की यात्रा शुरू हो जाती है.. नाम में छुपा ये प्रकाश.. वर्षों अनंत रेखा की भाँति बढ़ता रहता है.. वही रेखा.. जो माता पिता से जोड़कर रखती है लेकिन साथ के साथ उनसे बच्चे की दूरी भी बताती है।
मेरा WebGhar 14 वर्ष का हो गया है.. सिद्धार्थ से Kavi On iPad…और SidTree वाली इस काव्यात्मक यात्रा को तस्वीरों में… अपनी ही कृतियों में.. अपने Logos में देख रहा था..सोचा आपसे शेयर कर दूँ.. नीचे की सारी तस्वीरें, रेखा चित्र, स्केच, logo.. पिछले 14 वर्षों के हैं..

समय का हर टुकड़ा… हर दौर.. हमारी शख्सियत पर, हमारे काम पर.. अपने हस्ताक्षर करता है..
2007 से इक्कीसवी सदी के डिजिटल दौर को रेखांकित करने वाली कविताएं लिखी हैं..
उन्हीं कविताओं और बहुत से विचारों से अपने वेब-घर को सजाया है… हर हफ्ते कविवार बनाया है.. लेकिन आपको कभी इस यात्रा के बारे में नहीं बताया
शुरू शुरू में PC और फिर कमाने लगे तो सारी गुल्लकें और अकाउंट खाली करके लिए गए Macintosh का इस्तेमाल करते थे.. तकनीक में हमेशा से दिलचस्पी थी..लेकिन वेबसाइट बनाने का तकनीकी ज्ञान नहीं था.. काफी हाथ-पैर मारकर इंटरनेट पर तैरना सीखा.. और 2007 में .mac platform पर बाज़ीचा के नाम से एक ब्लॉग बनाया.. पुराने मित्र उसे तब भी पढ़ते थे.. और हौसला देते थे।
2010 में iPad आया तो टैबलेट कंप्यूटिंग का पुनर्जन्म हुआ.. और तब Kavi on iPad के नाम से एक ऑनलाइन प्रोजेक्ट शुरू किया था.. रचनाएँ, रेखाचित्र, संगीत सब iPad पर ही बनाते थे..
इस क्रम में गैजेट्स और भावनाओं का संयोजन हुआ.. कई माइक्रोफ़ोन आए. मिडी कीबोर्ड्स का इस्तेमाल हुआ.. ऑडियो इंटरफेस लाए गए.. स्पीकर, हेडफ़ोन.. न जाने क्या क्या मेरे चारों तरफ इकठ्ठा हो गया।
एक दोस्त कहता था.. SidTree.. तुम इतनी तारों में बंधे रहते हो.. जकड़े रहते हो.. नस फट जाएगी किसी दिन.. तो मैं कह देता था कि अपने औज़ारों से कैसी उलझन.. “its Gadget meditation.. like buddha is sitting on a noisy street, wearing headphones.”
फिर 2011 में कविताओं का एक डिजिटल ड्राफ्ट और पॉडकास्ट का स्वरूप तैयार किया, जिसका नाम रखा था Poetic Buddha..
Poetic Buddha के ही नाम से कविताओं का एक छोटा सा म्यूज़िकल एल्बम भी तैयार किया था (मेरी वेबसाइट के होमपेज पर ही नीचे के हिस्से में उपलब्ध है, लिंक नीचे है)
अगर बुद्ध हेडफ़ोन पहन लें तो ?… ये बात तो दिमाग में थी पहले से ही.. फिर.. ये भी लगा कि डिजिटल ज़माने में अप्प दीपों भव: यानी अपना दीया स्वयं बनने का एक हिस्सा.. अदृश्य हेडफ़ोन पहन लेना भी हो सकता है…वो हेडफ़ोन जो जीवन की सख्त और मुलायम समग्रता को एक लय में बांधे रखता है.. इसे कोई कंपनी नहीं बनाती.. स्वयं ही खोजना होता है।
इस सोच के साथ स्केच बने.. कुछ कविताएं लिखीं और फिर एक लिविंग Logo बनाया.. जो Logo भी था और घर में तीन आयामों में.. जीवंत होकर बना भी रहता था..
बहुत ज़्यादा तो नहीं.. लेकिन लोग आए.. अपनी अपनी ज़िंदगी में भागते लोग जब रविवार को ठहरते थे.. तो कविवार मनाने मेरे वेबघर में चले आते थे.. आज भी आते हैं।
कई लोगों ने कहा.. इसका क्या फायदा.. इससे कमाई क्या होती है.. और हर सवाल पर मुंह से यही निकलता था कि मेरे लिए ये कमर्शियल प्रोजेक्ट नहीं.. इमोश्नल प्रोजेक्ट है।
करीब डेढ़ दशक में कई लोगों ने रियेक्ट किया.. कई लोगों ने अपने विचार जोड़े.. सलाह दी…कई लोगों ने इग्नोर किया.. कई लोग प्रभावित हुए.. और चंद गिने चुने व्यापारी लोग ऐसे भी थे.. जो सानिध्य में रहते हुए चुपचाप मेरा ही सामान उठाकर निकल भी लिए.. किसी से प्रभावित होने में कुछ गलत नहीं है.. लेकिन इस प्रभाव में फोटोक़ॉपी मशीन बन जाना उस मौलिकता की हत्या है.. जो हर इंसान में कहीं न कहीं दबी होती है। फ़ोटोकॉपी मशीन को भी अब ओरिजिनल टोनर की ज़रूरत होती है। इधर उधर से स्याही/रंग भरकर काम तो चलाया जा सकता है.. लेकिन मौलिक कृति नहीं बनाई जा सकती।
आप सबके अंदर मौजूद हर मौलिक तत्व को अपनी अभिव्यक्ति मिले.. ऐसी कामना करता हूँ.. इसमें समय तो लगता है.. लेकिन जीवन में एक बार भी इसे प्राप्त कर लेना.. अनमोल है।
मेरे वेबघर पर फिर आइयेगा.. कविवार धीमी आँच पर पक रहा है.. बस पब्लिश हो जाएगा।
वादे के मुताबिक़ बादल और धूप की तकरार ❤️… पोस्ट करने वाला हूँ आज (24 जनवरी 2021 को)…