हर साल एक जनवरी आ ही नहीं पाती…
क्योंकि इस तारीख़ पर बधाइयों की बर्फ़बारी होती है
कई बार बहुत ख़ुशनुमा … कई बार बर्फ़ सी ठंडी…
कई दफ़ा निरर्थक.. और सूखी बधाइयाँ आती हैं
और बहुत सारी शुभकामनाएँ ऐसी भी होती हैं..
जिनसे बोरियत के छिलके उतारने पड़ते हैं…
तब जाकर उनसे.. संदेश भेजने वाले के भाव की महक आप तक पहुँचती है..
असल में हर व्यक्ति जब किसी को बधाई देना चाहता है तो उसके मन में जो पहली अभिव्यक्ति आती है..
वो सहज होती है.. और फिर उसे साधकर.. दूसरे को भेजते भेजते उस पर बर्फ की मोटी परत जम जाती है।
फोनबुक में इतने सारे नाम… पर उँगलियाँ स्क्रॉल करते हुए किसी किसी पर रुकती हैं.. और कोई कोई नाम ऐसा होता है.. जो आपकी उँगली को छू लेता है.. पकड़ लेता है.. काँच के उस पार से। कई बार व्यक्ति के लिए नहीं.. उसके पद के लिए या दुनियादारी के समीकरण के नाते.. बधाई आकर चश्मे पर जम रही होती है… और बधाई लेने वाले को दिखना बंद हो जाता है.. कुछ देर के लिए।
बधाइयों की बर्फ़बारी में दो दिन तक दबे रहने के बाद जब बर्फ कुछ पिघलती है..
तो मिल जाते हैं सहज अभिव्यक्ति, आत्मीयता और अपनेपन के कुछ कण..
आप ढूंढ रहे होते हैं उस शुभकामना को… जो आपके कंधे पर हाथ रखकर आपके साथ खड़ी हो जाए..
और कहे—
“मैं तुम्हारे साथ हूँ.. तुम्हारे बग़ल में.. चाहे कुछ भी हो जाए”
साल हर बार बदलता है.. पर तलाश नहीं बदलती..
अगर बहुत समय से किसी ने आपसे ये नहीं कहा कि — “मैं हूँ तुम्हारे साथ.. हर हाल में.. चाहे कुछ भी हो..”
तो अकेला और अनोखा महसूस करने की ज़रूरत नहीं है… आपके आसपास सब ऐसे ही हैं… जिसे चाहे.. एक फोन करके ये कह सकते हैं… और उम्मीदों की चेन रियेक्शन.. शुरू हो जाएगी.. प्रसन्नता की विद्युत बाँटने वाले ऐसे बिजलीघर.. कई चेहरों को जगमग कर सकते हैं।
गौर कीजिएगा..
सूनी सड़कें या सूनी गलियाँ नहीं होतीं.. सूना मन होता है… और उसे शुभकामनाओं की, अपनेपन की खनक चाहिए होती है… आप लोग जो बार बार मेरे #WebGhar पर आकर वक्त बिताते हैं… मेरे अपने हैं.. आपको नये साल की शुभकामनाएँ.. मैं आपके साथ रहूँगा.. चाहे कुछ भी हो जाए…

© Siddharth Tripathi ✍️ SidTree