“तुम हाँफता हुआ मध्यवर्ग हो.. हमेशा सीढ़ी बनकर रहोगे..”
… वो जब भी बेफ़िक्र होकर कॉफी का मग हाथ में उठाता.. दिमाग में ये अर्धसत्य कौंध जाता था। वर्षों तक कदम गुज़रते रहने पर.. क्या सीढ़ी को अपने अस्तित्व में अपशब्दों के कण नज़र आने लगते हैं ? ठीक वैसे ही जैसे किसी महानगर में रहने वालों के फेफड़े.. एक्स-रे करवाने पर अपने अंदर फँसी धूल को दिखाने लगते हैं ? उसकी साँस.. अफ़सोस से अटकने लगी.. और तभी सामने चल रही फिल्म में नायिका ने नायक से कहा… “मुझे अफ़सोस करना नहीं आता…” और उसे लगा कि सीढ़ी अफ़सोस नहीं करती.. सीढ़ी अनंत यात्राएँ करती है.. ऊपर से गुज़रते हर कदम के साथ !

कभी कोई कंधे पर पैर रखकर चढ़ा होगा
वजूद का वो हिस्सा ज़रा सख्त हुआ होगा
पर बोझ से वो टूटा नहीं..
अब पौधे उग आए हैं
अक्सर सीढ़ी पर चढ़कर…
अपने उतार की ओर जाने वाले लोग
मायने नहीं रखते
सीढ़ी मायने रखती है
कदमों को साधने वाले सीढ़ी के छोटे छोटे पायदान मायने रखते हैं
इन पायदानों से तय होने वाली यात्रा मायने रखती है