इस कविता का जो केंद्रीय पात्र है.. वो आपकी ही तरह तैरता है हर रोज़, समय के सागर में… जहां ऊँची, तूफ़ानी लहरें आती हैं.. वहां घड़ी की सुइयों के सहारे हो जाता है.. और लहर के ढहते ही.. फिर तैरता है दम लगाकर… चीरता चला जाता है पानी को.. जीवित दिखने वाली निर्जीव वस्तुओं के बीच रास्ता बनाते हुए… लेकिन मंज़िल नहीं आती… और फिर एक बिंदु पर निराश होने के बजाए.. वो मंज़िल की तरफ बढ़ने के साथ साथ.. तैरने में आनंद लेने लगता है.. मंज़िल की रोशनी उसे हौसला देती है। इस अपूर्णता को नायक और नायिका के बीच एक डोर की तरह बांधा है मैंने… पढ़िए और बताइये कैसी लगी ? iPad पर बनाया ये रेखाचित्र अर्थ को प्रोजेक्शन देता है

समय के सागर में दूर एक टापू 🏝दिखता है
उस पर एक लाइट हाउस
जिसकी रोशनी बिलकुल उसी तरह घूमती है
जैसे घड़ी की सुइयाँ ⏰ घूमती हैं हर रोज़
रास्ते में पॉलीथिन के कई टुकड़े
तैरती हुई कांच की बोतलें
रंग बिरंगी मछलियाँ 🐠🐟
कई डूबे हुए पत्थर
और कुछ मगरमच्छ भी
इतना सब कुछ होता है हमारे बीच में
कि दिन भर तैरकर भी
तुम तक नहीं पहुंच पाता मैं
🏊🏼
लेकिन डूबता भी नहीं हूँ
तुम्हारी रोशनी की डोर थामे..
तैरता रहता हूँ
नीचे देखिए.. पहले से ही लिखकर रखा है ये Tweet,
आप शेयर करेंगे.. तो बात दूर तक पहुँचेगी
अधिकतर लोगों को यही मलाल है कि वो मंज़िल तक पहुंच नहीं पा रहे.. रास्ते में डूब जा रहे हैं ..इस बार का #kavivaar आपको डूबने नहीं देगा… आपकी साँस फूलने नहीं देगा.. बल्कि तैरने में मदद करेगा…
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