
उसकी आँख खुली तो वो एक ऐसे शहर में था
जहां सभी के मुखड़े चांद के टुकड़े थे
पराई पूँजी के आलोक से चमकते
इन चाँद से मुखड़ों की ..
ऊबड़ खाबड़ सतह ..
एक मालामाल उपभोक्ता की तरह रोशनी में नहाई रहती
बहुत दूर से
रोशनी को सबकी तरफ ठेलते
पसीने से लथपथ सितारे
यही सोचते रहते
कि उनकी सारी रोशनी
आखिर टैक्स में क्यों कट जाती है ?
हर उपभोक्ता की मंद मंद मुस्कान में
निर्माता के पैरों की बेवाइयां दिखती हैं
Poem by Siddharth Tripathi

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हर उपभोक्ता की मंद मंद मुस्कान में .. निर्माता के पैरों की बेवाइयां दिखती हैं .. #kavivaar में इस बार पराई पूँजी के आलोक से चमकने वाले चांद के टुकड़ों को देखिए.. आपके आसपास कई होंगे …
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