कभी गौर किया है आपने.. हर प्यास को ढक लेती है बरसात.. और थोड़ी देर के लिए तृप्ति का धोखा हो जाता है। बूँदें कभी असलियत छुपाने वाले पर्दे की तरह नज़र आती हैं.. कभी प्रश्न की तरह.. कभी ये रास्तों को पिघलाकर नये रास्तों का निर्माण करती हैं.. तो कभी ऐसा भी होता है जब आपको आसमान का गिरेबान पकड़कर अपने हिस्से की बूँदें झटकनी पड़ती हैं। आसमान में रहने वाली बूँदों से लेकर आँखों में रहने वाली बूँदों तक.. सबको इस एक पोस्ट में लयबद्ध किया है.. इन पंक्तियों की बारिश में आप थोड़ी देर भीग सकते हैं..

बूँदों का पर्दा
इतने सारे मौसमों में
उसे बरसात का मौसम पसंद है
जब जब बारिश होती है
उसके आंसू छिप जाते हैं
एक तरफ दर्शक हैं
दूसरी तरफ रंगमंच है
बीच में बूंदों का पर्दा है
राग मल्हार गाकर बूँदों को बुलाने की कथाएँ मिलती हैं, कभी गायन से आसमान बूँदें लुटाता था, आज आसमान का गिरेबान पकड़ना पड़ता है, अपने हिस्से की बूँदों के लिए
जादुई यथार्थवाद के लेंस से देखने पर अगली रचना सार्वभौमिक हो जाती है
बुलाओगे तो आएँगीं बूँदें
वो कमाल के लोग थे
जो गाते थे राग..
बुलाते थे बूँदों को आसमान से
और वो बात मान लेती थीं
उतर आती थीं ज़मीन पर
आकर बैठ जाती थीं सिरहाने
सहलाती थीं दरारों से भरी घायल ज़िंदगियों को
वो राग.. रुग्ण हैं आज
चीख़ों.. सिसकियों.. टूटी हुई उम्मीदों को
अब स्वयं ही लयबद्ध होना होगा..
थरथराते हुए इस राग को.. पकड़ना होगा आसमान का गिरेबान
और झटकनी होंगी अपने हिस्से की बूँदें

आँखों के पानी में रहती है एक जलपरी
बूँदे लुटाता आसमान
आँखों से बहती जलपरी
पल पल कोलाहल है दुनिया
मन की समाधि जलपरी
अंदर चलता एक महायुद्ध
कृष्ण की गीता जलपरी
हर इंसान में हँसता शैतान
रूहानी मरहम जलपरी
हर आँख के पानी में
उम्मीद बन तैरती जलपरी
एक बूँद, एक प्रश्न
मेरे आगे नाचती हुई भीगी सी हवा
बालकनी पर लोहे की छड़ों को पकड़कर
झूला झूलती बारिश की बूंदें
पीछे रवि शंकर का सितार वादन
और कहीं दूर से आती
मां के खांसने की आवाज़
क्या दर्द और खुशी की धुनें
एक दूसरे का हाथ पकड़कर उत्सव मना सकती हैं ?
पिघली हुई सड़कें
बारिश में पिघली पिघली सी सड़कें
हमसे कहती हैं कि ज़िंदगी के रास्तों पर
दौड़ने की नहीं, बहने की ज़रूरत है
इन पंक्तियों की बारिश में आप थोड़ी देर भीग सकते हैं .. ये मनुष्य होने की attendance है .. आप #kavivaar से absent नहीं हो सकते ..
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