Explorer : खोजी यात्री

क्या किसी शिखर पर घर बन सकता है ?.. थोड़ा सोचा इस पर तो लगा कि अस्तित्व की ऊँची नोक पर खेल का मैदान तो नहीं हो सकता.. उस नोक पर कोई आराम कुर्सी नहीं हो सकती… वहां पहुँचकर विचार.. एक पैर के बल पर खड़ा तो रह सकता है.. पर विस्तार नहीं ले सकता… मुस्कानें भी कम जगह में चौड़ी नहीं हो पाती, सहज नहीं रह पातीं.. वहां जागीर का कोई मोल नहीं, ज़मींदारी भी नहीं चलती.. इसीलिए खोजी यात्री.. शिखर तक पहुँचते तो हैं.. लेकिन वहां एक गहरी साँस और ऊँचाई का बोध लेकर आगे चल देते हैं.. शिखर का राजसी कारावास उन्हें रोक नहीं पाता… शायद वो जानते हैं कि ऊँचा होना ही.. श्रेष्ठ होना नहीं है। मनुष्य के लिए किसी दौर में ऊँचाई पहुंच से दूर रही होगी.. इसीलिए उसे श्रेष्ठता का पैमाना मान लिया गया। लेकिन गौर से देखेंगे तो इसमें कुछ कुछ शिखर सम्मेलन जैसी फ़ीलिंग है.. मतलब शिखर पर पहुँचे.. सम्मेलन की भाँति शामिल हुए और निकल लिए..

कोलंबस, ह्वेन सांग, फाह्यान
अपने खोजे हुए टुकड़ों पर
इच्छाओं के गोदाम नहीं बना पाए थे
खोजी यात्री
शिखर पर अपना बंगला बनाने नहीं जाते..
वे ढूंढते हैं नये आयाम
करते हैं अज्ञात का अन्वेषण
और फिर आगे बढ़ जाते हैं
क्योंकि …
शिखर पर घर नहीं बनते ..
भ्रम बनते हैं ..