Freebie Notes : चुनाव में मुफ़्त वाले माल की राजनीति पर कुछ नोट्स

दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की जीत के बाद लगातार ये बात ट्रेंड कर रही है कि मुफ़्त के माल ने केजरीवाल को जीत दिला दी। वैसे ये मानव स्वभाव है कि जनता मुफ़्त का माल देखकर प्रसन्न हो जाती है उसकी बाँछें जहां कहीं भी होती हैं खिल उठती हैं (श्रीलाल शुक्ल के राग दरबारी से) लेकिन क्या चुनाव जीतने में मुफ़्त का माल सबसे बड़ी वजह बन सकता है ?

तमाम रिसर्च पेपर्स का अध्ययन करने के बाद.. सार यही है.. कि मुफ्त वाले राजनीतिक गिफ़्ट, जीत की इकलौती वजह नहीं बन सकते। थोड़ा बहुत असर हो सकता है।

जानकारियों को सवाल जवाब की श्रृंखला में पिरोया है। एक नज़र डालिए – अंत में एक जानकारी चाणक्य के ग्रंथ अर्थशास्त्र से भी ली है। उसे भी ज़रूर देखिएगा। #सिद्धार्थकीदूरबीन

सवाल – क्या भारत जैसे लोकतंत्र में वोटर को मुफ्त की वस्तुएं / पैसा बांटना या जीवन से जुड़े कुछ आवश्यक खर्चों को मुफ्त कर देना वो भी टैक्सपेयर के पैसे से.. ये जायज़ है ?

जवाब – नहीं

अर्थव्यवस्था के नियमों के अनुसार इसे मूल रूप से Bad Economics में गिना जाता है.. लेकिन कई बार ये कदम दूसरी बड़ी समस्याओं को हल करते हैं इसलिए इन्हें सहन कर लिया जाता है

उदाहरण के लिए मिड डे मील स्कीम एक मुफ्त वाली योजना है.. लेकिन इसकी वजह से स्कूल आने वाले बच्चों की संख्या बढ़ी है और वंचित वर्ग के बच्चे साक्षर हुए हैं।

जबकि मनरेगा, न्याय या कर्ज़माफ़ी की योजनाएं Unproductive Labour या Bad Loans की समस्या को जन्म देती हैं। लेबर को जब खाली समय और एक न्यूनतम आय मिलने लगती है तो देखा गया है कि प्रोडक्शन क्वालिटी का नुकसान होता है और लेबर का स्किल भी कमज़ोर होता है।

इसलिए अलग अलग केस के हिसाब से इसे जायज़ या नाजायज़ ठहराया जा सकता है.. लेकिन मूलत: ये जायज़ नहीं है। मुफ्त की योजनाओं के लिए पैसा बजट से ही निकाला जाता है और इससे अक्सर दूसरी योजनाओं पर बुरा असर पड़ता है।

इसमें एक एंगल ये भी है कि अर्थव्यवस्था में तेज़ी लाने के लिए कई अर्थशास्त्री बेसिक इनकम यानी सरकार से मिलने वाली एक बेसिक तनख्वाह एक तय समय तक देने की वकालत करते हैं ताकि लोगों के पास खर्च करने के लिए पैसा हो और पैसे के मूवमेंट से अर्थव्यवस्था में तेज़ी आए।

कई दूसरे देश भी न्यूनतम आय की योजनाओं पर विचार कर चुके हैं।

सवाल – क्या मुफ़्त वाली राजनीति पहली बार हो रही है ? ये कोई नया फॉर्मूला है ?

जवाब – नहीं,

टीवी, लैपटॉप, मोबाइल फोन, अनाज… आदि आदि… न जाने कितनी ही चीज़ें समय समय पर मुफ़्त में बांटी गई हैं।

योजनाओं के स्तर पर MNREGA, Right To Education, Food Security, PM Kisan Samman Yojana, Nyay scheme.. ये सब वंचितों को लाभ पहुंचाने के लिए बनाई गई मुफ्त वाली योजनाएं हैं।

भारत का कोई भी हिस्सा हो… या कोई भी पार्टी हो.. सबने कभी न कभी मुफ़्त वाली योजनाओं या फायदों का एलान किया है। कर्ज़ माफी भी चुनावी गिफ्ट के रूप में पैकेज होकर वोटर तक आती रही है

CSDS की स्टडी कहती है कि मुफ्त वाली राजनीति दक्षिण भारत में आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु में बड़े पैमाने पर होती रही है। हालांकि केरल इसमें अपवाद रहा है।

तमिलनाडु में तो वोट के लिए चुनावी उपहार देने का चलन वहां की चुनावी संस्कृति का हिस्सा बन चुका है। पिछले 15 वर्षों में वोटरों को मिलने वाले गिफ्ट्स की रेंज बढ़ गई है। 2013 में ये मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया था (सुब्रमण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु सरकार) तब सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को चुनाव आचार संहिता का नया वर्ज़न तैयार करने को कहा था। हालांकि इस मामले में चुनाव आयोग की शक्तियां सीमित हैं… वैसे भी चुनावी मैनिफेस्टो में किए गये वादे… Representation of Peoples Act के सेक्शन 132 के तहत Corrupt Practices में नहीं आ सकते।

मैनिफेस्टो चाहे सत्ता पक्ष का हो या विपक्ष का.. मुफ्त वाली घोषणाओं की जगह उसमें सुरक्षित रहती है और अब ये पहले से ज़्यादा होने लगा है। पहले मुफ्त वाली योजनाओं में काफी लीकेज रहता था जिससे योजनाओं का फायदा वंचितों तक पूरी तरह नहीं पहुंचता था.. लेकिन बीजेपी ने अपनी योजनाओं से इस लीकेज को बंद करने की कोशिश की.. और इसका लाभ उसे चुनावों में मिला। केजरीवाल भी लीकेज बंद करके, जनता को लाभांश देने का दावा अपने कई इंटरव्यूज़ में कर चुके हैं।

सवाल – क्या मुफ़्त की योजनाओं या वस्तुओं से वोट खरीदा जा सकता है ?

जवाब है – अधिकतर मामलों में नहीं। CSDS की स्टडी कहती है कि उम्मीदवारों से पैसा लेना वोट मिलने की गारंटी नहीं है। अगर पैसा मिलता है तो लोग स्वीकार तो कर लेते हैं लेकिन वोट अपनी मर्ज़ी से ही देते हैं। तमाम पार्टियां और उम्मीदवार नये नये तरीकों से जनता का वोट खरीदने की कोशिश करते हैं लेकिन ज़्यादातर वोटर ये समझते हैं कि उनके वोट की कीमत क्या है। इसलिए भले ही वो पैसा ले लें.. लेकिन फैसला अपने मन से लेते हैं। इसके साफ़ संकेत CSDS की स्टडी में मिले थे

कुछ उदाहरण भी हैं

  • तमिलनाडु में सत्ता और विपक्ष दोनों ही मुफ्त वाले वादे करते हैं लेकिन जनता उनमें से किसी एक को चुनती है और मुफ्त वाले एंगल को एक तरफ रखकर इस बात का फैसला करती है।
  • 2019 के लोकसभा चुनाव में जीतने वाली पार्टी को बिना मुफ्त का माल बांटे.. बड़ी जीत मिल गई थी। जबकि विपक्ष ने किसानों को सीधे सीधे पैसा देने का वादा किया था।

इसके अलावा किसी एक वर्ग के वोटरों को दी गई सब्सिडी कभी जीत की संपूर्ण गारंटी नहीं बन सकती।

चाणक्य के ग्रंथ अर्थशास्त्र में टैक्स लेने के तरीक़े सुझाए गये हैं, किससे कितना टैक्स लेना है ये बताया गया है और किन लोगों को सब्सिडी या मुफ्त वाली मदद देनी है.. ये भी लिखा है। इसे आधुनिक संदर्भों में अपडेट किया जाए तो आपको आज की राजनीति के सूत्र मिल सकते हैं – तस्वीर पर क्लिक करके आप भी पढ़ सकते हैं।

विशेषज्ञ ये भी मानते हैं कि मुफ्त वाली घोषणाएं भारत की राजनीति में फ़िलहाल एक कामयाब ट्रेंड है.. लेकिन ये लंबे समय तक नहीं चलेगा.. चुनाव की ये संस्कृति बदलेगी, क्योंकि जनता और जागरूक होने वाली है।

© Siddharth Tripathi ✍️ SidTree