
आसमान ने हीरे की अंगूठी पहनी है
दिलों की बर्फ़ पिघल रही है
जमी हुई चेतना पंख फड़फड़ा रही है
हर कोई ठंडे घरों से बाहर निकलना या झाँकना चाहता है
सूर्य की इन किरणों में प्रेम की अनुभूति है
क्या वाग्देवी सरस्वती ने खुद ये मौसम लिखा है ?
ज़रूर उन्होंने ही लिखा होगा,
क्योंकि इंसान की लिखी हुई चीज़ें तो अक्सर कॉन्क्रीट की होती हैंक्या बेचैन, भागता हुआ, अट्टालिकाओं से झाँकता हुआ,
बड़ा आदमी इस भाषा को पढ़ सकता है ?
ये भाषा हर दिन में सिमटी हुई है
और इसका इल्म होना ही वसंत है
काव्य विस्तार
हम कुछ यूँ नुकीले.. सबमें चुभे चुभे से रहते हैं.. कि अपने चारों तरफ़ उत्साह और ख़ुशी के बुलबुले फोड़ते चलते हैं। वाग्देवी सरस्वती ने हम सबके लिए एक ऋतु की रचना की.. एक मौसम लिखा हमारे लिए.. लेकिन आश्चर्य कि इस बार अब तक किसी ने इससे न बात की.. न मुलाक़ात की..
वो देश जो वसंत की धूप में चटाई बिछाकर.. लेटा रहता था कभी.. जो घर का बजट बनाने के बजाए.. भावुक होकर खर्चे कर देता था.. घर लौटकर आता, तो सबके लिए हाथ में कुछ न कुछ होता था… जो धन न होते हुए भी.. दानवीर था.. वो इस बात पर अटक गया है कि यहाँ किसकी चलेगी ?
इतिहास टकराते हैं… सभ्यताएँ पताका बनकर लहराती हैं.. शीश पर.. सोच समझ पर… और क्रोध का उबाल मुठ्ठी भींचकर.. हथियार या टुकड़े करने वाला कोई ख़तरनाक विचार उठा लेता है… जिसके बाद मौलिक प्रश्नों के टुकड़े टुकड़े हो जाते हैं… क्योंकि पक्ष कोई भी हो.. उसमें बात करने का सामर्थ्य नहीं है… शास्त्रार्थ की भूमि पर।
और मौन को…. कमज़ोरी माना जाता है… मौन कई बार स्वार्थ पूरे करने वाली व्यवस्था का निर्माण भी स्वतः ही कर देता है। ये हालात नाज़ुक हैं.. और हम एक परंपरा संपन्न देश होने के बावजूद इन्हें समाधान के साँचे में नहीं ढाल पा रहे हैं। समाधान करने वाले एक तरफ़ रेलवे लाइन पर मलबा डालकर देश की नसें काटना चाहते हैं.. या सामने वाले को ग़द्दार कहकर गोली मारना चाहते हैं। आश्चर्य कि ये तथाकथित समाधान हैं !
हमारे बड़ों ने… रागों को भी अपनी नाज़ुक उँगलियों से नियमों के साँचे में ढाला। वसंत.. के राग.. साल भर रात्रि के अंतिम पहर में गाये जाते हैं.. लेकिन वसंत ऋतु में किसी भी समय गाए जा सकते हैं… मन पर एक-एक धुन के असर के प्रति भी कितने सजग रहे हैं हम.. लेकिन अब वाग्देवी सरस्वती का रचा हुआ पूरा का पूरा वसंत ही.. हमें नहीं दिख रहा।
ये वसंत का इल्म करवाने वाली भूमिका है.. नींद से जगाने के लिए माथे को सहलाने वाला हाथ है.. शिकायत नहीं.. शोक की अभिव्यक्ति नहीं..
अपने अपने सूर्य विहीन कोटरों से निकलिए.. वसंत को महसूस कीजिए।
इस कविवार का अंत.. संगीत से करना चाहता हूं
पंडित रविशंकर ने 1986 में दिल्ली के मॉडर्न स्कूल में राग आदि वसंत की प्रस्तुति दी थी.. इसका वीडियो शेयर कर रहा हूँ.. जिन सज्जन ने इसे रिकॉर्ड किया उनका शुक्रगुज़ार हूँ।
© Siddharth Tripathi ✍️ SidTree