Seething Society : खौलता हुआ समाज

ये आंदोलन वाली चिंगारियाँ हैं, ध्वनियां हैं.. या याचिकाएँ हैं.. ये फ़ैसला आपकी भावनाओं पर छोड़ता हूँ.. लेकिन इतना ज़रूर है कि इन्हें एक काव्यात्मक रिपोर्टाज की तरह देखा जा सकता है.. इन कविताओं का रास्ता, स्निग्ध.. धूप पीते शरीरों की तरह अवरोध-मुक्त नहीं है.. ये थोड़ा ऊबड़खाबड़ है.. इसलिए असुविधा के लिए खेद है.. आगे कवि काम पर है.. इस छोटे से प्रोजेक्ट का विस्तार भी लगातार होता रहेगा।

संकेतों को समझें तो इस राह में एक ध्वनि है.. फिर उसकी प्रतिध्वनि है, इसके बाद अंतर्ध्वनि है, फिर कंपन है और अंत में ध्वनि विस्तार है जिसे अंग्रेज़ी में Amplification of Sound भी कहते हैं।

ध्वनि : आँच

ज़ुबां से निकलता झाग है
सिर पर लहराती आग है
ये खौलता हुआ समाज है
किसी ने आँच बढ़ाई लगती है


प्रतिध्वनि : पढ़ाई

किताबों ने एक मोड़ पर लाकर
छोड़ दिया है
ये धोखा है
या पढ़ाई लगती है?


अंतर्ध्वनि : मिष्ठान

नफ़रत पर ज्ञान का वर्क चढ़ाकर
तुमने जो मीठा मुझे खिलाया है
मन के कोने कोने में
नाग ने फ़न उठाया है
डँसने की ये चाह लिए
दरवाज़े खटखटाता हूँ
घर छूट गया बहुत पीछे
सब खोया है.. क्या पाया है ?


ध्वनि कंपन : विरोध प्रदर्शन

पलकों के बैरिकेड के पीछे
आँसुओं की भीड़
चुपचाप खड़ी है
और खड़ी रहेगी

इस भीड़ का माथा
एक सत्यापित दस्तावेज़ है
जिस पर लिखा है
कि आंसुओं की जाति नहीं होती
आँखों का नमक निकालकर
कोई अपनी थाली में स्वादानुसार नहीं डाल सकता


ध्वनि विस्तार : शिकायत पेटी

शिकायत की पेटियाँ
सेवानिवृत्त हो गई हैं
किसी को किसी से
अब शिकायत नहीं है

लोहे की पेटी पर नम हवा के झोंके
तालियां झूम रहीं.. कोई न इन्हें टोंके

ज़ंग खाए लोग हैं… और..
बच-बचकर चलने की
ये रवायत नई है
किसी को किसी से
अब शिकायत नहीं है

© Siddharth Tripathi ✍️ SidTree