उसने कहा –
क्या अब भी तुम्हें मेरे ख़्वाब आते हैं ?
उसके हमसफ़र ने कहा –
तुम वही हो
जो मेरे ज़ेहन की अंगुली पकड़ के
मुझे ख़्वाबों में ले जाती हो
लम्हा दर लम्हा तुम्हारे ख्यालों के साथ
पिघलता हूं मैंकंप्यूटर पर बैठो
तो बाहों का हार खींचता है
खाना खाता हूं
तो तुम्हारा मातृत्व सींचता हैकभी शतरंज के खानों पर लड़ते
तुम्हारे हाथ की बनी
गर्म चाय के घूंट उतारतेतो कभी एक-दूजे पर
बेफ़िक्र पड़े हम
फिल्म देखते, किताब पढ़ते
या यूं ही बतियातेपता नहीं ये एक ख़्वाब है
या ख़्वाबों का सिलसिला
जो भी है
तुमसे है…तुम्हारा होना
अब एक ख़्वाब हो गया है
जो समुद्र की तरह चारों तरफ नज़र आता है
किसी आराम कुर्सी पर हिचकोले लेता हुआ
© Siddharth Tripathi ✍️ SidTree