त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पितम्
- कला के पारखी
- संगीत का ‘भोजन घराना’ !
- झील का कारोबार
- झरोखे
- सजी हुई बैठकें
नोट – नमक की ज़रूरत शायद न पड़े, वो अपने आप ज़ुबान पर आ जाएगा। वैसे संवेदनशील मनुष्यों के अश्रुओं में भी नमक पाया जाता है।
कला के पारखी
आराम कुर्सियों पर
कॉकटेल की क़ीमत चुकाने वाले बैठे हैं
कला के पारखी बनकर
ज़ोरदार नृत्य, बारिश के पतंगे जैसा
तालियाँ, हथपई रोटी जैसी
किसी ताक़तवर नदी के पाट जैसी मुस्कानें हैं
नर्तकियों के चेहरे पर
और नदी…
नर्तकियों की मुस्कानों के बीच से होती हुई
ग्लास तक बह रही है…
ये प्यास का नया धर्म है
नृत्य देखने वाले इस धर्म के अनुयायी हैं
हालाँकि वो अब तक ये नहीं समझ पाए हैं
कि किसी को नाचते हुए देखने में आनंद है ?
या किसी के साथ बेफ़िक्र होकर नाचने में ?
संगीत का ‘भोजन घराना’ !
पेट तक रोटी के नर्म निवालों की यात्रा को
शानदार बनाने के लिए
लयबद्ध संतूर वादन चल रहा है
देर रात तक चलेगा,
जब तक सुनने वाला एक एक व्यक्ति,
अपने हाथ और मुँह पोंछकर चला न जाए
पूरे जीवन की साधना
आज अमीर और नफ़ासत पसंद लोगों के लिए एक ज़ायक़ा बन गई है
खाने पीने के साथ मुफ़्त में संतूर वादन
संगीत के कई घराने
दाल मखनी और तंदूरी नान के बीच
अपनी पहचान ढूँढ रहे हैं।
झील का कारोबार
सूखी हुई झील
कारोबार बन गई है
झील के पानी की आखिरी बूँद सूखने तक
हम हमाम में नहाते रहेंगे
पानी ठंडे या गर्म तेवरों में उपलब्ध है,
गुलाब की पंखुड़ियों से सुसज्जित !
हम झील पर अपनी समृद्धि की लकीरें बनाते रहेंगे
मोटर बोट चलाते रहेंगे
सैलानी इसी तरह आते रहेंगे
झरोखे
गाइड ने कहा –
इस झील के किनारे जितने भी झरोखे हैं
उनमें से एक भी किसी घर का नहीं है
जिन इमारतों को घर होने का ग़ुरूर था
उन्हें सजा-धजाकर होटल बना दिया गया है
इस तरह एक शहर की अलसाई हुई दोपहरें
और झील किनारे वाली शामें ख़रीद ली गई हैं।
अब खानदानी लोग यहां गाइड बनकर घूमते हैं
सजी हुई बैठकें
सजी हुई बैठकों में
बहत दिनों से कोई सलवट नहीं आई
जागती हुई रातों में
बहुत दिनों से कोई करवट नहीं आई
घर के सामान के अब जोड़ दर्द करते है
बच्चे की तरह यहाँ जीवन फैलाया करो
यूं तो वो बादशाह है कई रियासतों का
फिर न जाने क्यों कहने लगा
कभी कभी मिलने आ जाया करो
© Siddharth Tripathi ✍️ SidTree