एक बार नहीं तीन बार !! अगर आपसे कोई ये कहे कि आपको एक ही काम, एक ही विधि और एक जैसी भावना से, हर रोज़ कम से कम तीन बार करना होगा तो आपको कैसा लगेगा? क्या आपके अंदर ऐसा कर सकने की शक्ति है। क्या आप तीनों बार उस कर्म के साथ न्याय कर पाएँगे, क्या पहली बार करने के बाद दूसरी और तीसरी बार किया गया वही काम डुप्लीकेट जैसा महसूस नहीं होगा ? मन थोड़ा खिन्न होगा, परेशान होगा, और पहली बार के बाद दूसरी और तीसरी बारी में ये परेशानी और झुँझलाहट.. उस काम में घुल-मिल जाएगी। इस भाव को मैंने घर में खाना बनाने वाली स्त्री के संदर्भ में देखने की कोशिश की है। आजकल हवाओं में राजनीतिक प्रदूषण बढ़ गया है, युद्ध की चाह भी चरम पर है, फिर भी उम्मीद करता हूँ कि एक सामान्य कामवाली का ये दैनिक युद्ध, शोर को पार करके आप तक पहुँच जाएगा।

रसोई है.. कि दो पहाड़ियों के बीच बंधी रस्सी है
जिस पर उसे चलना होता है
दिन में एक बार नहीं
तीन बार
अपने घर में, अपने पति, अपने बच्चों के लिए
आपके घर में आपके परिवार के हर सदस्य के लिए
इतने के बाद भी पैसे पूरे नहीं पड़ते
तो एक घर और पकड़ना पड़ता है
वहां भी वही चाय, वही नाश्ता, वही खाना
वही रस्सी, उस पर फिर वही यात्रा
क्रमश: तीसरी बार
© Siddharth Tripathi ✍️ SidTree