कामकाजी कविताएं : Poems from the Workplace

ये कविताएं, कामकाज और नौकरियों से निकली हैं, इसलिए इन्हें कामकाजी कविताओं की संज्ञा दी है। जिस कामकाज की मैं बात कर रहा हूं उसकी भूमिका बचपन से ही बननी शुरू हो जाती है। देश की आधी से ज़्यादा आबादी अपनी ज़िंदगी की शुरुआत में वो पढ़ती है जिसे पढ़ने का कभी मन नहीं करता और सही मायने में शिक्षा से जिसका दूर-दूर तक वास्ता नहीं होता। पढ़ाई के दिनों में ना शिक्षक मिलते हैं ना गुरु, अक्सर शिक्षा सेवकों/अधिकारियों से काम चलाना पड़ता है। इसके बाद ये शिक्षा अधिकारी आपको Boss के तहख़ाने में फेंक देते हैं और नौकरियों का दौर शुरू होता है, जो हमें मन मारकर जीना और कमाना सिखा देता है। जिस तरह पानी के किसी बड़े जहाज़ में तीसरे, दूसरे और पहले दर्जे की श्रेणियां होती हैं, उसी तरह नौकरी में भी तहखाने से ऊपर की मंज़िल तक की यात्रा होती है।

तृतीय श्रेणी के कंपार्टमेंट में सबसे संवेदनशील लोग मिलते हैं, दुर्घटना की स्थिति में डूबने का सबसे ज़्यादा ख़तरा इन्हें ही होता है।  दूसरी श्रेणी में थोड़े चालाक, सख़्त और मजबूर कर्मचारी मिलते हैं और प्रथम श्रेणी में अक्सर पत्थर मिलते हैं, जिन्हें बड़े बड़े लोग उठाकर किसी पर भी मार देते हैं।

आश्चर्य की बात ये है नौकरी करते हुए लोगों को इस बात का बोध नहीं होता कि जिसे वो अपना काम और शौर्य समझ रहे हैं वो उनका अंतिम जीवन लक्ष्य नहीं है। दफ़्तरों के कठोर और धक्कामुक्की वाले माहौल में जो मैंने महसूस किया, वो इस श्रृंखला के रूप में आपसे शेयर कर रहा हूँ। कविताएँ पढ़ने से पहले एक नज़र इस मर्म/व्यंग्य चित्र को देखिए।

Rubik’s Cube : नाज़ुक नौकरियाँ

दफ़्तर की इमारत बिलकुल रूबिक्स क्यूब जैसी थी
उसके शक्तिशाली कमरे हर वक़्त विस्थापित होते रहते थे
उन कमरों में रहने वाले लोग ये सोचते रहे
कि सत्ता उनके तशरीफ़ के नीचे दबी रहेगी
उनका कमरा एक राजमहल की भाँति
भय-मिश्रित आदर भावना को प्राप्त करता रहेगा
शायद वो भूल गये थे कि वो एक मुलाज़िम हैं
और उनकी नाज़ुक नौकरियाँ
किसी बच्चे के हाथों का खेल हैं

Blood Rush : वीर रस

मज़दूरों को वीर रस की कविताएँ बहुत पसंद आती हैं
उनका कर्मचारी मन तुरंत आखेट पर निकल जाता है
थोड़ी देर शेर का शिकार कर लेते हैं
बॉर्डर पर थोड़ा ख़ून और पसीना बहा लेते हैं
उधार की वीरता का ये बोध ख़ून में उबाल मार देता है
और फिर वो ब्लड प्रेशर की गोली खाकर सो जाते हैं

Paper Flowers : वक़्त की माँग हैं काग़ज़ के फूल

अकड़ी हुई बुनियादों पर खड़े कॉन्क्रीट के दफ़्तर में
एक मेज़ रखी है
मेज़ पर तरह तरह के फूल हैं
और ये फूल मुरझा भी जाएँ तो हटाने का मन नहीं करता

क़ुदरत से जुड़ी असली चीज़ों की बहुत कमी है यहाँ
आस पास देखिए
पेड़ कट कर मेज़ बन गया है
फूल कटकर गुलदस्ता बन गए हैं
और तमाम इंसान कटकर मुलाजिम बन गए हैं
सूरज न तो उगता है, और न ही डूबता है यहाँ
ट्यूबलाइट की रोशनी में झुलसते
गुलाबी, पीले फूल अक्सर दिख जाते है
फिर लगता है कि हर जगह की मिट्टी मुलायम तो नहीं हो सकती
हर जगह फूल जड़ों के साथ ज़िंदा तो नहीं रह सकते

इसलिए यहाँ असली नहीं काग़ज़ के फूलों की ज़रूरत है
जिनको मुरझा जाने का ख़तरा न हो
जिनकी कोई महक न हो
और जिन्हें सूरज, हवा, खाद, पानी की ज़रूरत न हो

Tie : गले में बंधा.. ‘कथित आत्मविश्वास’ का फंदा

मेरे दर्द में और किसी मज़दूर के दर्द में कोई फर्क नहीं है
मेरे डर बिलकुल तुम्हारे जैसे ही हैं
मेरे भी पैर कांपते हैं कुछ नया शुरू करते हुए
हर रोज़ जीतने के लिए दौड़ते दौड़ते
मैं भी लड़खड़ाता हूं
मेरा चरमराया हुआ आत्मसम्मान
मेरी दुखती हुई एक एक रग
तब भी मेरे साथ होती है
जब मैं पूरी शिफ़त से बेच रहा होता हूं खुद को
अलग अलग दुकानों पर
लेकिन मैं कुछ भी बाहर नहीं आने देता
सब कुछ बांधकर रखता हूं
मेरी गर्दन के आसपास बंधी टाई
मेरी उड़ान को रोक लेती है
मेरी गर्दन झुकती नहीं… टूटती नहीं
न जाने कहां से आत्मविश्वास की बिजली का एक खंबा
मेरे अंदर आकर गड़ जाता है
और टाई पहन कर मैं साहब हो जाता हूं
खुद को साधकर हासिल हुई ये कामयाबी अच्छी लगती है
लेकिन जैसे ही दुनिया के रंगमंच से उतरकर
बैठता हूं, टाई ढीली करता हूं
बहुत कुछ उड़ने लगता है
अंदर से बाहर की तरफ

Horse Power – आज़ाद रफ़्तार

ये घोड़ा दौड़ रहा है
ठीक वैसे ही जैसे आप दौड़ रहे हैं
हर रोज़

नाक से रस्सी गुज़रने के बावजूद
जान लगाकर दौड़ने के लिए
अपनी आज़ाद रफ़्तार को
किसी और के हवाले करने के लिए

कुछ सीटियां, कुछ तालियां
तो होनी ही चाहिए

© Siddharth Tripathi ✍️ SidTree