“कभी आओ हवेली पे” कई फिल्मों में ये डायलॉग आपने सुना होगा, ये शब्द खलनायक के मुंह से निकलते थे, और मकसद भी पवित्र नहीं होता था। लेकिन इस कविता में आप, हवेलियों को बारिश में भीगते हुए, एक दूसरे से पीठ जोड़कर बैठे हुए, दिन-रात सपने देखते हुए पाएंगे। मैंने हवेलियों को एक जीते जागते प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल किया है। Luxury Apartments वाली महत्वाकांक्षा के इस दौर में, ये हवेलियां अपनी दरारों से सपने देख रही हैं।

पुरानी हवेलियां
सोती रहती हैं
बाज़ारों की पीठ पर टेक लगाकर
कभी मिलो.. जगाओ इनको
झुर्रीदार दरवाज़े, कांपती आवाज़ें
दीवारों से
उखड़ती झरती कहानियां
जब कभी बरसात होती है
बहुत सारी उदासी टपकती है यहां
वैसे पानी तो
अटारी पर चढ़े
उस फ्लैट पर भी बरसता है
पर वहां बूंदें
शीशे पर खेलती रहती हैं
किसी को नहीं भिगोतीं
यूं तो शहर बहुत बड़ा है
दूरियां बेशुमार
पर तन्हाइयों को
ये बूंदें जोड़ती हैं…
काश सब भीग पाते
© Siddharth Tripathi ✍️ SidTree
Artwork is drawn on an iPad Air in 2014
App Used – Paper by 53,
Drawing tool – Pencil Shading Stylus by 53.