रविवार को दिन भर चाँदनी छाई रही और नाज़ुक ज़िंदगी की क़ीमत समझाने के लिए ऊपरवाले ने सूरज का दिन चुना! 54 साल की उम्र में श्रीदेवी का यूं मर जाना.. एक बार को अभिनय जैसा लगता है।
“किसी दिन नस फ़ट जाएगी और सब कुछ यहीं पर,धरा का धरा रह जाएगा”
अपने मित्रों, क़रीबी लोगों और परिवार वालों से अक्सर ये कहा करता हूँ। उन लोगों से कहा करता हूँ, जिन्होंने बहुत कुछ पा लिया है और सब कुछ पा लेने की लालसा में आंख बंद करके दौड़ रहे हैं। और यही बात जाते-जाते श्रीदेवी ने भी कह दी। श्रीदेवी की मौत ने.. मेरी.. आपकी और हम सबकी कमज़ोर नस पर हाथ रख दिया। मानो वो खुद बग़ल में बैठकर हौले से कह रही हों कि “मौत का ये सच सिर्फ मेरा नहीं तुम्हारा भी है”
ख़बर फैली तो हर ज़ुबान और चेहरे पर विस्मयबोधक चिन्ह लगते चले गये..
“अभी उम्र ही क्या थी”
“अभी तो और जी सकती थी”
”श्रीदेवी ऐसे अचानक कैसे मर सकती है”
घंटों तक श्रीदेवी को निहारने वाले युवा और अधेड़ प्रेमी, हाथ में चाय का कप या सिगरेट फंसाकर बहुत देर तक ये सोचते रहे कि जिस दिल के लिए करोड़ों दिल जलते हों, वो दिल ठंडा कैसे पड़ सकता है?
श्रीदेवी का जीवन जिस बिंदु पर रुक गया था, करोड़ों लोग अचानक उस बिंदु से आगे की रेखाएँ अपने मन में खींचने लगे। ज़िंदगी की आँच तेज़ थी.. और उसे इस आग में तपकर चमकना था…शायद इसीलिए चमकते चमकते ख़र्च हो गई। श्रीदेवी का जीवन सौंदर्य के स्मारकों और उपमाओं से भरा हुआ है, वो भारतीय लावण्य से भरी हुई एक ऐसी प्रेयसी हैं.. जिनके स्वप्न सिनेमा के पर्दे से सीधे मन में उतरते रहे हैं। उनका जीवन काव्यात्मक है, लेकिन उनकी मौत वैसी ही है जैसी शशि कपूर की थी, जयललिता की थी, या असंख्य अनाम लोगों की होगी। चाहे आप हों या श्रीदेवी, मौत से आपको कोई स्पेशल ट्रीटमेंट नहीं मिलेगा।
Last Leaf.. सूखे पेड़ की सबसे ऊँची शाख़ पर मौजूद आख़िरी हरी पत्ती
श्रीदेवी को EverGreen leaf of Indian Cinema कहूँ तो ग़लत नहीं होगा। यानी एक सदाबहार हरी पत्ती, जिसका रंग, सिनेमा को नई उम्मीद देता है। वैसे इस संज्ञा के पीछे एक कहानी और एक फ़िल्म है। O.Henry की कहानी The Last Leaf में और उसी पर आधारित हिंदी फ़िल्म लुटेरा में, शाख़ से बांधी गई एक पत्ती.. ज़िंदा रहने और साँस लेते रहने की उम्मीद देती है। श्रीदेवी ने ये उम्मीद हमें दी है। वो एक पीढ़ी के लिए चाँदनी हैं, तो दूसरी पीढ़ी के लिए Mom हैं, अटक अटककर शर्म के साथ अंग्रेज़ी बोलने वाले हम लोगों को, English-Vinglish की श्रीदेवी में कोई अपना सा दिखाई देता है। ये काम फ़िल्मी कलाकार ही कर सकते हैं, और शायद इसीलिए उन्हें किसी के भी मुक़ाबले, ज़्यादा याद किया जाता है। चाहतों के ये असंख्य पुल, किसी नेता, वैज्ञानिक या खिलाड़ी के लिए नहीं दिखते। अपने सौंदर्य की चाँदनी से पूरे भारतवर्ष को स्नान करवाना हो, अपने प्रेम और परिवार के लिए फ़िल्मों को छोड़ना हो, या फिर पचास साल की उम्र में अपनी पूरी शक्ति इकठ्ठा करके पूरे संसार से ये कहना हो… कि मैं ख़र्च नहीं हुई.. मुझमें अब भी बहुत कुछ बाक़ी है। मैंने उम्र को आभूषण बना लिया है, मेरा चेहरा गीली मिट्टी जैसा लचीला हो गया है, जीवन और अभिनय को बहुत क़रीब ले आई हूँ मैं।
“कई बार अप्सराएं भी गृहिणी बन जाती हैं”
वैसे श्रीदेवी के जीवन और अभिनय का फ़र्क़ क्या था इसे राम गोपाल वर्मा ने अपने जीवन की सच्ची कहानियों पर आधारित किताब Guns & Thighs में लिखा है। रामगोपाल वर्मा ने श्रीदेवी पर बाक़ायदा एक अध्याय लिखा है। इसमें उन्होंने बताया है कि कैसे वो चेन्नई में श्रीदेवी के बंगले को घंटों निहारते रहते थे, श्रीदेवी का स्टारडम क्या था? और बोनी कपूर के घर में श्रीदेवी को एक सामान्य गृहिणी की तरह चाय बनाते देखकर उनका दिल कैसे टूट गया? ये हिस्सा मैं आपके साथ शेयर करना चाहता हूँ। रामगोपाल वर्मा की ये किताब पढ़ने लायक है।
“WHEN I WAS STUDYING engineering in Vijayawada, I would so often, while standing in the line to buy a ticket for the new Sridevi movie, keep staring longingly at her on the hoardings in the theatre compound.
Her beauty and sex appeal were so overpowering that it took many many films and many many years for both the audience and the industry to recognize the actress in her, who was first showcased, according to me, in the most effective way by Shekhar Kapur in Mr India. Even though her acting prowess was evident right from her debut film, her superstardom kind of gave prominence only to her sex-symbol image, which was so strong that it blinded everybody to her tremendous talent.
Mr India made the audience discover a new Sridevi, primarily because of the way Shekhar Kapur aesthetically captured both her extraordinary beauty and her incredible performance.
“My journey to Sridevi started when I was preparing for my debut film Shiva. I used to walk from Nagarjuna’s office in Chennai to a neighbouring street where Sridevi used to live, and I would just stand and stare at her house. I just couldn’t believe that the goddess of beauty lived in that stupid-looking house. I say stupid because I believed that no brick-and-mortar house deserved to hold that ethereal beauty called SRIDEVI. I used to desperately hope to catch a glimpse of her as she went in or out of her house, but sadly no such thing ever happened.”
“Gopala Reddy arranged a meeting with her, and took me to meet her in that very same house I used to stand and stare at. We went at around 7.30 at night, and as luck would have it, there was a power cut in her house. So I was sitting in her living room in candlelight along with Gopala Reddy, waiting for the angel to appear and my heart was thumping like mad. Her mother told us she was busy packing as she was about to catch a flight to Mumbai.
As we were waiting, every once in a while Sridevi rapidly crossed the living room as she moved from one room to another in a rush to finish her packing, apologetically smiling at me for the delay. Every time she appeared and disappeared in a flash, the director in me started slow motioning her and running her backward and forward for my visual pleasure.
Finally, she came and sat in the living room, just uttered a mandatory few lines that she would very much like to work with me, which I am sure she said to a host of other directors as well, and then she left for Mumbai. I continued talking to her mother with enormous respect and awe because she had actually given birth to Sridevi.
I went back to my place feeling like I was in the seventh heaven. The way Sridevi had sat in front of me in the candlelight got imprinted in my mind like an exquisite painting, and with her image completely filling both my mind and heart, I started writing Kshana Kshanam.”
“She was staying in a traveller’s bungalow, a little distance from the bungalow where Venkatesh and I were staying. There used to be a crowd of at least 10,000, just staring at her bungalow throughout the night. There were about fifty local toughs along with a 100-strong police force continuously deployed to guard her.
When we were on location, we used to know when Sridevi had started from her bungalow to come to location, because we could see a column of dust travelling towards us from the distance. The dust was kicked up by the thousands of people running behind her car.”
“The woman who was the object of lust of the entire nation’s male population, was suddenly left all alone in the world till Boney Kapoor stepped in to fill the vaccum. So, straight from her superstardom, magazine covers and her dazzling beauty on the silver screen, I saw her in Boney’s house serving tea like an ordinary housewife. I hated Boney Kapoor for bringing that angel down from heaven to such an ordinary, humdrum existence.
I don’t go to Boney’s house these days because I can’t bear to see Sridevi in a real everyday setting. For me, she is a highly precious jewel to be showcased only in exotic locales and brilliant cinematic settings.
Sridevi is one of the sexiest and most beautiful women God ever created, and I think he creates such exquisite pieces of art only once in a million years.
So what if Boney has the real Sri in his house…? I have her captured as a cinematic goddess in my mind’s camera and as a divine angel in the heart of my celluloid dreams.
I thank god for creating Sridevi, and I thank Louis Lumiere for creating the movie camera to capture her beauty forever.”
Excerpt From Guns & Thighs: The Story of My Life, Ram Gopal Varma.
भारत के दिल में जो सिनेमाघर है.. वहां श्रीदेवी की फ़िल्म 50 साल बाद भी लगी रहेगी
सिनेमा किसी को भी एक से ज़्यादा जीवन जीने की सुविधा देता है। हर भूमिका एक नई ज़िंदगी की तरह सामने आती है। श्रीदेवी हों या शशि कपूर, हर अदाकार लोगों के सामने बार बार पुनर्जन्म लेकर आता है। श्रीदेवी ने तीन सौ फ़िल्मों में काम किया, यानी वो तीन सौ बार नया जन्म लेकर लोगों के सामने आई होंगी और लोगों ने उनके बारे में अपनी राय बनाई होगी। ये बहुत कठिन परीक्षा है जो अभिनेताओं को देनी होती है और यही बात उन्हें समय के पार ले जाती है।
नेता और अभिनेता की मौत होती तो एक जैसी है, लेकिन समय दोनों को बाँट देता है! इसके बाद अभिनेताओं को किसी रत्न की तरह अलग पहचान मिल जाती है जबकि नेता खो जाते हैं समय की रेत में। जिस दिन शशि कपूर मरे थे, उस दिन उनकी मृत्यु की तुलना जयललिता से कर रहा था। अब श्रीदेवी की मृत्यु ने उस तुलना को और भी अधिक साफ़ और प्रासंगिक बना दिया है।
एक तरफ अभिनेता है और दूसरी तरफ राजनेता। दोनों में ही सपनों को यथार्थ में बदलने की कला थी। श्रीदेवी और शशि कपूर ने समाज की घटनाओं को अपने अभिनय से जीवंत बनाया और सिनेमा वाले सपने बुने.. जबकि जयललिता ने राजनीति के अभिनय को साधने के लिए.. अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। उन्होंने राजनीति के बहुत से उतार चढ़ाव देखे.. फिर भी वो अपनी आखिरी सांस तक…प्रासंगिक बनी रहीं। लेकिन अब जयललिता सिर्फ एक प्रतीक.. एक Symbol.. या एक तस्वीर बनकर रह गई हैं। एक ऐसी तस्वीर जिस पर माला पड़ी हुई है.. और उस माला में गुंथे.. यादों के फूल.. हर गुज़रते वर्ष के साथ सूखते जाएंगे।
हालांकि श्रीदेवी और शशि कपूर जैसे अभिनेता, समय के इस महासागर में इतनी जल्दी विलीन नहीं होंगे, क्योंकि इन अभिनेताओं ने पूरे जीवन अपने आसपास के समाज को फिल्मों में उतारा। उनकी फिल्में समय के इस महासागर में किसी नाव की तरह तैरती रहेंगी। उनके अभिनय पर आज से पचास साल बाद भी तालियां और सीटियां बजती रहेंगी। लेकिन किसी राजनेता ने कैसा काम किया… कैसे सत्ता हासिल की इसकी चर्चाएं धीरे-धीरे फीकी होती जाएंगी और हो सकता है कि समय के साथ उस नेता की छवि भी पूरी तरह बदल जाए। राजनीति में कौन सा काम अच्छा होगा और कौन सा काम बुरा होगा, इसका निर्णय.. काल… व्यक्ति और परिस्थितियों के अनुसार बदल जाता है। इसलिए अगर यादों की कसौटी पर राजनीति और सिनेमा को तौला जाए.. तो सिनेमा वाली यादें.. राजनीति की यादों पर हमेशा भारी पड़ती हैं। फिल्मों के डायलॉग सालों-साल याद रहते हैं… जबकि राजनीति के ज़्यादातर भाषण और डायलॉग्स…खो जाते हैं।
लेकिन इस फर्क के बावजूद मृत्यु सबको बराबरी पर लाकर खड़ा कर देती है। चाहे कोई नेता हो या अभिनेता… मृत्यु के बाद उसके व्यक्तित्व के मायने नहीं रहते… सिर्फ उसका काम ज़िंदा रहता है। और वो भी तब जब वो काम Universal हो.. यानी वो काम देश, काल और स्थिति से परे हो और बार बार, हर किसी के अंतर्मन को छूता रहे।
…और अंत में युधिष्ठिर और यक्ष का संवाद भी याद कर लेना चाहिए
महाभारत में पांडवों के अज्ञातवास के दौरान यक्ष और युधिष्ठिर के बीच एक संवाद होता है। इसमें 100 से भी ज़्यादा प्रश्न पूछे गये थे.. और उन्हीं में से एक प्रश्न मृत्यु से संबंधित था।
यक्ष : दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है ?
युधिष्ठिर : हर व्यक्ति ये जानता है कि मृत्यु जीवन का अंतिम सत्य है, फिर भी वह यही सोचता है कि उसके जीवन का अंतिम सत्य मृत्यु नहीं है।
मृत्यु अंतिम सत्य तो है.. लेकिन श्रीदेवी के संदर्भ में इसे स्वीकार करने का मन नहीं करता। भारत के दिल में श्रीदेवी का एक बड़ा सा कमरा है, जो उन्होंने ख़ाली कर दिया है, लेकिन श्रीदेवी वहाँ से गई नहीं हैं.. उस कमरे में बहुत सारी सीटियाँ और तालियाँ गूँज रही हैं, सिनेमा के कुछ आधे फटे टिकट वहां पड़े हैं। श्रीदेवी को अपनी प्रेमिका की तरह देखने वाली आँखें अंधेरे में टिकट चेक करने वाली टॉर्च की तरह है। जगह जगह दरवाज़ों के ऊपर ख़ूनी लाल रंग में Exit लिखा हुआ है। लेकिन कोई यहां से जाना नहीं चाहता। भारत के दिल में जो सिनेमाघर है.. वहां श्रीदेवी की फ़िल्म अब भी लगी हुई है। अपार भीड़ ले रहे हैं, रोज़ाना चार शो।
© Siddharth Tripathi ✍ SidTree