Essence of Readings on Weekends
The Captured Gazelle, Poems of Ghani Kashmiri (Published by Penguin)
ग़नी कश्मीरी.. सत्रहवीं शताब्दी का वो सूफ़ी शायर जिसने कश्मीर की आत्मा को छुआ था, उस जन्नत को महसूस किया था। इस हफ़्ते इन जनाब की रचनाएं पढ़ीं। इनकी मूल भाषा फ़ारसी है.. और अनुवाद अंग्रेज़ी में किया गया है। आपको शायद अंदाज़ा नहीं होगा कि मीर तक़ी मीर, मंटो, इक़बाल और ग़ालिब पर भी इनकी कई रचनाओं का गहरा प्रभाव पड़ा था और ग़ालिब के कुछ शेर तो बहुत मिलते जुलते पाए गये हैं, लेकिन इन्हें जीते जी, कभी वो शोहरत नहीं मिली, जिसके ये हक़दार थे। ईरान में ग़नी कश्मीरी की, मूल फ़ारसी रचनाओं को बहुत सम्मान से देखा जाता है। कहा जाता है कि ग़नी कश्मीरी की फ़ारसी रचनाओं से प्रभावित होकर औरंगज़ेब ने उन्हें अपने दरबार में बुलवाया था, लेकिन इस सूफ़ी कवि ने आने से इनकार कर दिया था, क्योंकि वो मुगल शासकों को अत्याचारी और कश्मीरियों को पीड़ित मानते थे। जम्मू-कश्मीर में ऐसा माना जाता है कि ग़नी कश्मीरी ने एक लाख से ज़्यादा पंक्तियां लिखीं, लेकिन वो कभी किसी बादशाह के दरबार में नहीं गये और न ही किसी बादशाह की चमचागीरी करने के लिए कसीदे पढ़े। ऐसा करना आज भी बहुत मुश्किल है.. चार सदी पहले तो ये और भी मुश्किल रहा होगा।
इनकी ये किताब पढ़ते हुए, कुछ पंक्तियां आपके साथ बांटने का मन हुआ।
“ In the world of wonders
the veil of your face
Is woven from the
glittering beams of the sun ”
“ With tenderness you can escape
the Oppressors clutches
has the painter’s brush ever
come under the sword’s edge ”
“ Never before has Honey
tasted so sweet.
The bee, I Know, has
stung that sweet lip ”
संवेदनशील शायर होने के कारण उन्हें ये अंदाज़ा भी था कि जीवित रहते हुए, शायद उन्हें कभी अपनी शर्तों पर मनचाही लोकप्रियता नहीं मिलेगी। ये बात उन्होंने अपनी रचनाओं में कही भी है-
“ Fame eluded my verse till the soul
was the body’s prisoner,
the fragrant musk found release
Once the dear was slain ”
कई बार अच्छे कलाकारों का शोहरत और मान-सम्मान से संपर्क नहीं हो पाता। ये बात 21वीं सदी के इस घोर डिजिटल युग पर भी लागू होती है। 400 साल पहले ग़नी कश्मीरी जिस दबाव में थे.. वो दबाव पूरी दुनिया के कलाकारों पर आज भी है लेकिन हुनर को कोई दबा नहीं सकता। जो कृति.. समय के पार चली जाती है उसे नये युग में नये कद्रदान भी मिल ही जाते हैं।
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इस किताब के लिए तबस्सुम ज़िया का शुक्रिया !
© Siddharth Tripathi ✍ SidTree