पहले सिरहाने किताबें रखकर सोते थे, अब मोबाइल फ़ोन चार्जिंग पर लगाकर सोते हैं।
WhatsApp, Facebook, Twitter और Instagram के दौर में किताबों के साथ समय कम बीतता है। किताबें पुराने दोस्तों की तरह हो गई हैं। कभी कभी बात होती है.. और मुलाक़ात तो लगभग ना के बराबर होती है। शहरों में पुस्तक मेले लगते हैं, तो लोगों को याद आता है कि उन्हें किताबों के क़रीब जाना है। लोग ख़ूब ख़रीद रहे हैं किताबें.. उन्हें घर में इकठ्ठा कर रहे हैं। लेकिन पढ़ने का समय किसी के पास नहीं है। किताबें अब ड्राइंग रूम की सज्जा के काम आती हैं, घर आने वाले को ये बताने के काम आती हैं कि ‘मकान मालिक’ पढ़ा लिखा है, सोशल मीडिया पर अपनी छवि चमकाने के काम आती हैं। किसी से बातचीत करते हुए, सामने वाले के दिमाग़ पर अपने बौद्धिक वज़न के बट्टे रखने के काम आती हैं। यदा कदा में एक-आधा पन्ना पढ़ भी लेते हैं, कोई बात अच्छी लग जाती है, याद रहजाती है.. और व्यक्तित्व में आधी चुटकी नमक की तरह मिल जाती है। जब कोई नहीं होता.. और किसी के कंधे पर सिर रखकर, दिल की बात कहने का मन होता है.. तो कुछ किताबें अपने आप हाथ में आ जाती हैं.. और लोग कुछ कहने के बजाए.. किताबों को पढ़ने लगते हैं.. अपने दिल की बात में थोड़ा सा नमक मिला देते हैं.. किताबों की थोड़ी सी ख़ुशबू मिला देते हैं।