ये मेरी पहली कविता थी। तब मैं दसवीं में पढ़ता था, इस हफ़्ते DNA में बुंदेलखंड के किसानो की भूख पर ख़बरों की सीरीज़ करते हुए इस कविता की बहुत याद आई, आज पहली बार इसे अपनी पुरानी डायरी से निकालकर शेयर कर रहा हूं।
मन माने या ना माने
सब कुछ करा लेती है ये रोटी
ताक़त नहीं बनती
कमज़ोरी बन जाती है ये रोटी
क्या नहीं करते लोग रोटी के लिए
संघर्ष, मेहनत, सबकुछ…
पर न मिले तो नाक रगड़वा लेती है रोटी
हर ज़िंदगी में ख़ास जगह बना लेती है रोटी