सोमवार की सुबह, थके हुए इंसानों के लिए एक शोकसभा जैसी होती है। घर से निकलते हैं और सड़कों पर थकान के महासमुद्र में खो जाते हैं। पहचान बनाने, या कमाने, या किसी तरह बचे रहने की होड़ में… हर वक़्त हाथों से, या जबड़े से कुछ छूट रहा होता है। खोए हुए सामान और लोगों के लिए छटपटाते हुए, इस बात का एहसास नहीं होता, कि जो गया है वो बहते हुए वापस भी आ सकता है.. किसी और शक्ल में, किसी और रूप में, किसी और दाम पर। इस कविता में मैंने कोशिश की है कि सोमवार या किसी भी दिन की शोकसभा… शोक समारोह में बदल सके। शोक को ख़त्म तो नहीं किया जा सकता लेकिन उसे समारोह में शामिल किया जा सकता है।
पन्ने फटते हैं, किताब में चिंदियां छूट जाती हैं
रिश्ते मिटते हैं, शीशे पर बिंदियां छूट जाती हैं
अंदर उम्मीद पाले रखना हमारी आदत है
दिन जलते हैं… रातें ज़हर निगल जाती हैं
किसी ने कहा था मोहरा बनने में फायदा है
बादशाह होने की भूख.. मगर अकेला छोड़ जाती है
रोज़ कुछ न कुछ छूटता है.. हम बस देखते हैं
छटपटाना अच्छा नहीं.. चीज़ें वापस आती हैं
International Version
Whether you Tear off a page from a book
Or tear off someone from your life
something remains and lives on
Pawn rises, becomes a King,
it is a brutal game of chess
lust rises, burns everything,
king is crushed by loneliness
Everyday something spills out of control
but Don’t fret, that ‘Something’ is on the way..
to complete a full circle.
© Siddharth Tripathi ✍️ SidTree