आप सभी को हिंदी दिवस की शुभकामनाएं, ये नई कविता पढ़िए और बताइये कैसी लगी
मानो चिंगारियां खेलते खेलते
आग बन जाएं
कहीं अंदर आज कुछ हुआ है
पता नहीं बारूद है कि दुआ है
चिंगारियों से
छिलते, कटते
पिघलते, ढलते
अक्षर बन रहे हैं शब्द
एक ही वंश के हैं लेकिन
सब जुदा हैं एक दूसरे से
शब्द ही हैं हम सब भी
मिलें तो रचें महाकाव्य
© Siddharth Tripathi and www.KavioniPad.com, 2015